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नि दु॑रो॒णे अ॒मृतो॒ मर्त्या॑नां॒ राजा॑ ससाद वि॒दथा॑नि॒ साध॑न्। घृ॒तप्र॑तीक उर्वि॒या व्य॑द्यौद॒ग्निर्विश्वा॑नि॒ काव्या॑नि वि॒द्वान्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ni duroṇe amṛto martyānāṁ rājā sasāda vidathāni sādhan | ghṛtapratīka urviyā vy adyaud agnir viśvāni kāvyāni vidvān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि। दु॒रो॒णे। अ॒मृतः॑। मर्त्या॑नाम्। राजा॑। स॒सा॒द॒। वि॒दथा॑नि। साध॑न्। घृ॒तऽप्र॑तीकः। उ॒र्वि॒या। वि। अ॒द्यौ॒त्। अ॒ग्निः। विश्वा॑नि। काव्या॑नि। वि॒द्वान्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:1» मन्त्र:18 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अमृतः) आत्मरूप से मृत्यु धर्मरहित (विद्वान्) विद्वान् (दुरोणे) घर में (मर्त्यानाम्) मनुष्यों के बीच (घृतप्रतीकः) घृत जिसका प्रकाश करनेवाला (अग्निः) वह अग्नि (उर्विया) पृथिवी पर (वि, अद्यौत्) विशेषता से प्रकाशित होते हुए के समान (विश्वानि) समस्त (विदथानि) विज्ञानों वा (काव्यानि) विशेष आक्रमण करती हुई बुद्धियोंवाले विद्वानों के बनाए शास्त्रों का अध्ययन कर सबका हित (साधन) सिद्ध करते हुए मनुष्यों के बीच (निषसाद) स्थिर हो वह हम लोगों को सत्कार करने योग्य है ॥१८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि सूर्यरूप से सबको प्रकाशित करता है, वैसे पूर्ण विद्यायुक्त सभापति राजा धर्म से प्रजाजनों की अच्छे प्रकार पालना कर विद्याओं का प्रकाश करता है, वह सबको सत्कार करने योग्य कैसे न हो ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

योऽमृतो विद्वान् दुरोणे मर्त्यानां घृतप्रतीकोऽग्निरुर्विया व्यद्यौदिव विश्वानि विदथानि काव्यान्यधीत्य सर्वहितं साधन् मर्त्यानां राजा निषसाद सोऽस्माभिः सत्कर्त्तव्यः ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) नितराम् (दुरोणे) गृहे (अमृतः) आत्मारूपेण मृत्युधर्मरहितः (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् (राजा) न्यायाधीशः (ससाद) सीदेत् (विदथानि) विज्ञानानि (साधन्) साध्नुवन् (घृतप्रतीकः) घृतमाज्यं प्रतीकं प्रदीपकं यस्य सः (उर्विया) पृथिव्याम् (वि) (अद्यौत्) प्रकाशते (अग्निः) पावक (विश्वानि) सर्वाणि (काव्यानि) कविभिः क्रान्तप्रज्ञैर्विद्वद्भिर्निर्मितानि (विद्वान्) ॥१८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्निः सूर्यरूपेण सर्वं प्रकाशयति तथा पूर्णविद्यो राजा धर्मेण प्रजाः संपाल्य विद्याः प्रकाशयति स सर्वैस्सत्कर्त्तव्यः कथन्न भवेत्? ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी सूर्यरूपाने सर्वांना प्रकाशित करतो तसा विद्वान राजा धर्माने प्रजेचे चांगल्या प्रकारे पालन करून विद्येचा प्रसार करतो. त्याचा सत्कार सर्वांनी का करू नये? ॥ १८ ॥